30 अक्टूबर स्वामी दयानंद सरस्वती जी की पुण्यतिथि है आज ही के दिन 1883.मे इनकी मृत्यु हुई थी।। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अपने जीवनकाल मे कई सामाजिक सुधार कार्यक्रम व अन्य कार्य किए ,उनके बारे मे विस्तार से जानेंगे
एक महान योगी, क्रान्तिकारी एवं समाज सुधारक, दार्शनिक और राष्ट्रवादी जन नेता स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म, तिथि के अनुसार फाल्गुन मास की कृष्ण दशमी के दिन 12 फरवरी 1824.में हुआ था।।
गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र जिला राजकोट के एक छोटे-से गाँव टंकारा में कर्षण जी तिवारी और माता यशोदाबाई के यहाँ हुआ। उनका बचपन का नाम मूलशंकर था।माना जाता है कि मूल नक्षत्र मे पैदा होने के कारण मूलशंकर नाम रखा गया..
केशवचन्द्र सेन के सुझाव पर दयानंद सरस्वती जी ने संस्कृत भाषा के साथ हिन्दी भाषा को अपना लिया तथा कोपीन के स्थान पर धोती-कुर्ता धारण करने लगे।
बचपन मे ही उनमे मूर्ति पूजा के प्रति विरोध दिखा ,साथ ही बहन की मृत्यु ने उन्हे झकझोर दिया और उन्होने घर छोड़ने का फैसला किया ,विवाह के विचार की वजह से 21 वर्ष की उम्र मे उन्होने सन्यासी जीवन जीने का फैसला किया।।
सत्य की खोज मे वे लगभग 15 वर्ष (1845-60) तक.भटकते रहे,इस बीच उन्होने कई आचार्यों से शिक्षा ग्रहण की।
सबसे पहले वे वेदान्त के प्रभाव में आये ।।उन्होने आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए ,इससे उनका नाम ‘शुद्ध चैतन्य” पड़ा।
सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं वहां उनको प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती प्राप्त हुई। बाद मे उन्होंने योग को अपनाया और वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद वेदों के प्रकांड विद्वान स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे और उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। उन्होंने स्वामी जी को वेद पढ़ाया । शिक्षा पूरी होने के बाद इन्होने कहा " तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।”
स्वामी दयानंद वस्तु जगत के ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को सद्ज्ञान कहते लेकिन सद्ज्ञान को सर्वोच्च ज्ञान मानते थे।।यह ज्ञान वैदिक ग्रंथों में है।
तर्क की कसौटी पर कसना दयानंद जी की सबसे बड़ी विशेषता थी। वे किसी भी ज्ञान बिना तर्क की कसौटी पर तोले नही मानते थे।।
एक बार उनसे अंग्रेजी अधिकारी ने सुरक्षा देने के बारे में कहा तो उन्होंने कहा आपका शासन इतना अच्छा है कि मुझे सुरक्षा कर्मियों की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फिर उन्होंने यह भी कहा कि सुराज्य से स्वराज्य अधिक बेहतर है, सबसे पहले स्वराज की बात इन्होने ही की थी।
कार्य:::---स्वामी दयानंद सरस्वती के कार्य.निम्न है
◆ 1875 में 10 अप्रैल मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। उद्देश्य वैदिक धर्म को पुन: स्थापित कर जातिबंधन को तोड़कर संपूर्ण हिन्दू समाज को एकसूत्र करना था।
उन्होने कहा ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है। सभी हिन्दुओं को उस एक ब्रह्म को ही मानना चाहिए।
◆स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। इससे उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला, जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था
◆स्वामीजी ने अपने उपदेशों का प्रचार आगरा से प्रारम्भ किया।1867 ई0 में हरिद्वार में अपने वस्त्र फाड़कर एक पताका तैयार की और उस पर लिखा ‘पाखंड खंडनी’,।।
इसे अपने निवास पर इसे फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार पोंगा-पंथियों को चुनौती दी एवं झूठे धर्मों का खण्डन किया।
◆महिलाओं की शिक्षा व समान अवसर की बात कही। वे महिलाओं को उच्च शिक्षा देने के समर्थक थे।
◆अनुसूचित वर्ग की दयनीय स्थिति का विरोध किया व लोगों से अनुरोध किया कि वे सभी के साथ समान व्यवहार करें, इस प्रकार उन्होंने शूद्रों के उद्धार पर मुख्यतया बल दिया।
◆उन्होंने सभी वर्णों को कर्म के आधार पर सम्मान दिया।
◆दयानंद जी ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए ‘पुनः वेदों की ओर चलो का नारा दिया’। सत्यार्थ प्रकाश मे (सन 1875) का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है।
◆ उनकी सभी रचनाएं ग्रंथ जैसे ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था “मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।” इस प्रकार हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार किया।।
◆स्वामी दयानंद ने अपने विचारों और सुधार कार्यों से नए जागरण की लहर उत्पन्न कर दी थी।इससे पुरातनपंथी और स्वार्थी लोग उनके विरोधी भी बन गए थे।जोधपुर के राजा के आमंत्रण पर वे जोधपुर गए ।
एक दिन वहां के दरबार में महाराज की वेश्या नन्हींजान को समीप देखकर उसकी कड़ी आलोचना कर दी। नन्हींजान आलोचना सुन कर स्वामीजी की दुश्मन बन गई। उसने अन्य विरोधियों से मिलकर स्वामीजी के रसोइए जगन्नाथ को बहकाया।
उसने दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। स्वामीजी पर उसका तुरंत असर दिखाई दिया। उनके पेट में भयंकर कष्ट होने लगा। स्वामी जी ने योग क्रियाओं से दूषित पदार्थ को निकाल देने की चेष्टा की, पर विष तीव्र था और अपना काम कर चुका था।
कहा जाता है कि दूध में जहर देने की बात स्वामीजी को थोड़ी देर बाद ही पता चल गई थी। उन्होंने समय पाकर उसे अपने पास बुलाया। उनके आत्मिक प्रभाव से जगन्नाथ कांप गया और अपना अपराध स्वीकार कर लिया।
स्वामीजी ने उसे कहा, 'अब जहां तक बन पडे़ शीघ्र से शीघ्र तुम जोधपुर की सरहद से बाहर निकल जाओ, क्योंकि यदि किसी भी प्रकार इसकी खबर महाराज को लग गई तो तुमको बिना फांसी पर चढ़ाए न मानेंगे।'बस जगन्नाथ उसी क्षण वहां से निकल गया
इस प्रकार महान दार्शनिक ,समाज सुधारक की 30 अक्टूबर 1883 को इनकी मृत्यु हुई।।
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