Important festivals of Chhattisgarh a part 1

2411,2023

 छत्तीसगढ़ के पर्व एवं त्यौहार भाग-1

दोस्तो छत्तीसगढ़ के प्रत्येक माह के पर्व एवं त्यौहार पर अब हम विस्तृत चर्चा करेंगे, सबसे पहले हम चैत्र माह के प्रमुख त्यौहार को समझते है |

                      चैत्र माह( मार्च अप्रैल ) 

  1. चैत नवरात्र : - शीत ऋतु की विदाई के साथ-साथ बसंत ऋतु का आगमन होता है। तब चैत माह में शुक्ल पक्ष में प्रथमा से नवमी तक यहां प्रकृति और शक्ति की आराधना का पर्व प्रारंभ होता है।
  • हर गांव का माता देवालय शक्ति की भक्ति तथा उसकी पूजा-प्रार्थना का केंद्र होता है, नौ दिन और नौ रात ज्योति कलश जलते हैं।
  • त्यौहार का प्रारंभ देव स्थान में जंवारा बोंकर किया जाता है।
  • प्रथम दिन माता स्थापना के दिन स्थानीय अनाज (जैसेः गेंहू,जौ,धान, अरहर ) के दाने को विधि-विधान से भिंगोया जाता है। जिसे 'बिरही फिलोना' कहा जाता है।फिर उसे क्यारियों, ज्योतिकलशों और टोकनियों में बोया जाता है।
  • जंवारे अन्न के नन्हें बिर्वे में नित्य प्रति हल्दी पानी का छिड़काव किया जाता है।
  • देवी की पूजा के साथ उसकी सेवा में गीत प्रस्तुत किए जाते हैं, इसे जस गीत /सेवा गीत कहते हैं।
  • जस गीत/सेवा गीत में देवी की प्रार्थना, स्तुति, पराक्रम और उसकी शोभा का वर्णन होता है।
  • पुजारी को पंडा कहते है |
  • पंचमी, सप्तमी को माँ का विशेष श्रृंगार होता है। चांग और मांदर के ताल पर जंवारा गीतों को सुनकर लोग देव शक्ति से आवेशित हो जाते हैं। जिसे 'देव चढ़ना' कहा जाता है। लोग बाना से अपने अंगों को छेदते हैं। यह शक्ति की आराधना का अद्भूत पर्व है।
  • 8 वें दिन यज्ञ होता है |
  • पर्व के नौवें दिन शोभायात्रा के साथ जंवारे का विसर्जन किया जाता है।शोभायात्रा में महिलाएं सिर पर जंवारा या कलश रखकर सफेद साड़ी पहनकर शामिल होते|
  • कलश यात्रा में बाती का बुझना जिसका अर्थ अशुभ माना जाता है |
  • पूरे जवांरा को तालाब में नहीं छोड़ा जाता, बल्कि कुछ हिस्सों को टोकरी में रखकर वापस ले आते है,
  • लोग परस्पर एक दूसरे के कान में जंवारा खोंचकर मितान बदते हैं और सपरिवार प्रेम के बंधन में बंध जाते है। यह छत्तीसगढ़ की अलौकिक परंपरा है, जो लोगों को प्रेम, सद्भाव और मित्रता की बांहों में भर लेती है।
  1. रामनवमी : - रामनवमी का पर्व यूँ तो संपूर्ण भारत में आनंद-मंगल के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि चैत्र शुक्ल नवमीं के दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था।
  • चूँकि श्री राम का संबंध छत्तीसगढ़ की धरती से रहा है, उनकी मां कौशिल्या छत्तीसगढ़ की बेटी थीं।
  • अतः छत्तीसगढ़ श्रीराम का ननिहाल रहा है। आज भी लोग यहाँ अपने भांजे को श्रीराम के रुप में चरण छूकर प्रणाम करते हैं। यह लोक परंपरा यहाँ आज भी जीवंत है। इसलिए छत्तीसगढ़ में रामनवमीं का विशेष महत्व है।
  • गाँव-गाँव, शहर-शहर में रामजन्म की झांकी निकाली जाती है। राममंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
  • सबसे बड़ी बात यह कि रामनवमीं को 'देवलग्न' मानकर इस दिन विवाह अधिक से अधिक संपन्न होते हैं।
  • रामनवमीं का यह पर्व लोगों में प्रेमभक्ति, आदर्श चरित्र, सेवा और सद्भाव की प्रेरणा देता है।
  1. गोबर बोहरानी : - बस्तर संभाग की कोंटा तहसील के अंतर्गत छिन्दगढ़ ब्लाक में आने वाले गाँवों में प्रति वर्ष चैत्र मास शुक्ल पक्ष में रामनवमी से पूर्व एक विचित्र त्यौहार मनाया जाता है, जिसे गोबर बोहरानी कहते हैं|
  • दस दिनों तक चलने वाला त्यौहार है |
  • यह पर्व मुख्य रूप से सुकमा जिले के छिंदगढ़ विकासखंड के धुरवा जनजाति के लोग मनाते है, धुरवों के अतिरिक्त इस इलाके में अन्य जातियों के लोग भी आबाद मिलते हैं। गोबर बोहरानी में सभी जातियों के लोग सम्मिलित होते हैं।
  • इसका आयोजन ग्राम से सटे मैदान में किया जाता है । जहां ग्राम देवी की स्थापना करते हैं और शस्त्र पूजा करते हैं।
  • शस्त्र-पूजा का विधान : -   ग्राम-देवी के पूजा-स्थल पर पुरुष वर्ग द्वारा धनुष, तीर, कुल्हाड़ी, फरसी और ढोकेना आदि शस्त्रों को रख कर ग्राम-देवी की विधि पूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। त्यौहार के अंतर्गत आखेट का भी प्रावधान रहता है। इसी कारण शस्त्र पूजा का कार्यक्रम आखेट से पहले आयोजित होता है, जिससे आखेट की सफलता असंदिग्ध हो जावे। यह पूजा प्रातः 8 बजे से पहले ही सम्पन्न हो जाती है।
  • आखेट की प्रथा : - पूजा सम्पन्न हो जाने के बाद शिकारी अपने-अपने शस्त्र उठा लेते हैं और आखेट के लिये जंगल की ओर चल पड़ते हैं। वर्तमान में ग्रामवासी प्रथा पूरी करने की दृष्टि से आखेट के नाम पर जंगल घूम आते हैं, क्योंकि आखेट प्रतिबंधित है। हाँ, यदि मौका लग गया और हाथ आ गयीं, तो वे जंगली चिड़ियों पर ही संतोष कर लेते हैं।
  • लोक-संगीत : -  दोपहर में (पेज बेरा) शिकारी, जंगल से लौट आते है, और अपने-अपने घर जाकर भोजन से निपट लेते हैं। थोड़ी देर आराम कर लेने के बाद पुनः पूजा-स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। शाम होते ही गोबर बोहरानी का आयोजन-स्थल, लोक-संगीत के विविध रंगों में रंग जाता है। वहाँ ग्रामवासी स्त्री-पुरूष, बच्चे, बूढ़े और युवा वर्ग बड़ी रात तक नाच-गानों में तल्लीन दिखाई देते हैं।
  • 10वें दिन : - आयोजन स्थल पर गोबर भण्डारण के निमित्त एक गड्ढा बना लिया जाता है, जिसमें लोग थोड़ा-थोड़ा गोबर ला-लाकर डालते रहते हैं। ठीक दसवें दिन इस गोबर बोहरानी त्यौहार का समापन हो जाता है। इस दिन लोग सुबह 10 बजे के लगभग आयेजन-स्थल में जमा होकर नाचते-गाते और खडू में से गोबर उठा-उठाकर एक दूसरे पर छिड़कते हैं और अपशब्दों का उच्चारण करते हैं। अंत में गड्ढे से गोबर उठा-उठाकर ग्रामवासी अपने-अपने खेतों की ओर चल देते हैं। खेतों में गोबर छिड़क-छिड़क कर नहा-धोकर प्रेम से घर लौटते हैं। इस प्रकार गोबर बोहरानी का संमापन हो जाता है। इसके पश्चात खेतों में खाद डालने का काम शुरू हो जाता है।
  1. माटी तिहार(बीज फूटनी) : - माटी तिहार बस्तर में चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है ।इस त्यौहार को मनाने के लिए हर गाँव में एक मंदिर बना होता है जिसे माटी देव गुड़ी परिसर कहते है।इस गुड़ी परिसर का एक पुजारी होता है जिसे माटी पुजारी कहते है|
  • इसका मुख्य उद्देश्य मिट्टी के प्रति श्रद्धाभाव प्रकट करना है।मिट्टी के वास्तविक स्वरूप की पूजा कर मनाया जाने वाला त्यौहार ।
  • विशेषकर गोंड़ जनजाति के द्वारा मनाया जाता है
  • माटी तिहार में प्रतिक के रूप में बादल, पानी, और किसान की ही पूजा की जाती है |
  • माटीदेव गुड़ी में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
  • माटी देवगुड़ी के परिसर में कुएं की तरह एक छोटे से गड्ढे में सियाड़ी रस्सी से बंधी बीजधान मिट्टी को अर्पित किया जाता है।
  • ग्रामीण एक-दूसरे को मिट्टी का टीका लगते है ।
  • प्रसाद के रूप में बीज धान मिटटी के साथ वितरण किया जाता है |
  1. सरहुल पर्व : -  यह पर्व चैत्र माह की पूर्णिमा के दिन उरांव जनजाति के लोग मनाते है| तथा उरांव के अलावा संथाल, मुंडा जनजाति के लोग भी मनाते है |
  • साल वृक्ष पर फूल लगना इस त्यौहार के आगमन का सूचक है । इसलिए इसे फूलो का त्यौहार भी कहते है ।
  • इस दिन पुजारी(पाहन) काले मुर्गे(सूर्य देव) व काली मुर्गी(धरती माता )को प्रतीकात्मक रूप से हल्दी लगाकर उनका विवाह सम्पन्न कराया जाता है| उसके पश्चात उनकी बलि दी जाती है ।
  • घरों में साल वृक्ष के पत्ते लटकाए जाते हैं।
  • इस अवसर पर सरहुल नामक नृत्य भी किता जाता है ।
  • इस अवसर पर हंडिया नामक पेय पदार्थ पिया जाता है ।
  • प्रसाद के रूप में साल वृक्ष के पत्ते वितरण किया जाता है, जिसे गांव वाले कानों में खोंच लेते हैं।
  • लोक कथा : -  गांव में एक बार बच्चों पर एक राक्षस ने हमला कर दिया। बच्चे डर कर साल वृक्ष में छिप गए। बच्चों की रक्षा करने के लिए साल वृक्ष से माता प्रकट हुई और बच्चों की रक्षा उस राक्षस से की और उस राक्षस को मार गिराया। उसके बाद बच्चे साल वृक्ष के पत्तों को कानों में खोंचकर अपने-अपने घर की ओर लौट गए।
  • साल वृक्ष से प्रकट होने के कारण माता का नाम सरना हो गया।
  1. बीज पंडुम पर्व : - यह पर्व चैत्र माह में 15 से 30 दिन तक मनाया जाता है । इसके पश्चात ही कृषकों द्वारा बुआई का कार्य प्रारम्भ होता है। बस्तर में यह त्यौहार दण्डामी माड़िया जनजाति के लोग मनाते है । इस अवसर में धरती माता की पूजा की जाती है।

Admin ::-DeshRaj Agrawal

 

 

 

 

04:22 am | Admin


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