सिडोली प्रथा क्या है ?
• सिडोली कोरकू जनजाति का सर्वाधिक रोमांचक और अब समाज में लुप्त प्राय सी प्रथा के रूप में बचा मृतक संस्कार है।
• यह अनुष्ठान प्रायः पौष माह में किया जाता है। वैसे कभी - कभी सिडोली वैसाख में भी होती है ।
• पौष का महीना कोरकू जनजाति में शुभ नहीं माना जाता। इस माह में मांगलिक कार्य स्थगित रहते हैं।
• कोरकू जनजाति में भी सिडोली हर एक व्यक्ति के लिए नहीं की जाती जो प्रमुख हो, जिसकी ख्याति रही हो जो अर्थ सम्पन्न रहा हो, उसी की सिडोली होती है। इस उल्लेख से नस्लगत समानता का अनुमान लगाया जा सकता है ।
• संभवतः कोरकू जनजाति में सिडोली के समान दूसरा कोई रोचक, खर्चीला और विवादास्पद कार्यक्रम नहीं है।
सिडोली को लेकर मान्यता : -
• सिडोली के विषय में मान्यता है कि जो भी व्यक्ति मरता है. उसकी आत्मा आसपास ही भटकती रहती है.
• उसके मोक्ष के लिए आवश्यक है कि उसे समाधिस्थ कर दिया जाये। इसी मान्यता के चलते यह अनुष्ठान पूर्ण होता है ।
• जिसमें एक साथ उद्दाम काम गीतों की शृंगारिकता, अंतिम रूप से विछोह की करुणा और मोक्ष की शांति की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
सिडोली प्रथा की आयोजन अवधि : -
• इस अनुष्ठान को पूरा करने के लिए आवश्यक नहीं कि व्यक्ति के मरने के तुरंत बाद ही किया जाये ।
• यह एक साल, दो साल, दस साल या और भी ज्यादा बाद कभी भी किया जा सकता है।
सिडोली की आयोजन किस प्रकार की जाती है ?
प्रथम दिवस :- कार्यक्रम प्रायः सोमवार के दिन शुरु होता है।
•सुबह से ही घर की उजाल पूजा होती है अर्थात् घर की साफ- सफाई और लिपाई - पुताई के बाद होने वाली देवों, कुल देवों की पूजा आदि ।
• इस दिन सभी परिजन सिडोली आयोजित करने वाले व्यक्ति के घर आ जाते हैं। इसी दिन शाम को लगभग चार बजे सभी लोग नाचते गाते नदी पर जाते हैं। वहाँ पर केकड़े के घर की मिट्टी लौटाने जाते हैं।
• कोरकू ऐसा मानते हैं कि केकड़ा अजर अमर होता है। उसी ने सबसे पहले मिट्टी का निर्माण किया था। यह भी माना जाता है कि केकड़े को भगवान ने आसमान से नीचे गिराया था । केकड़े की इस मिट्टी को जब लौटाने जाते हैं तो मिट्टी लौटाने वाले व्यक्ति को दो चार लोग पीछे से पकड़ कर रखते हैं। क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता है कि वहाँ पर आत्मा की शक्ति होती है जो व्यक्ति को खींचकर पाताल ले जा सकती है।
• इसके बाद सागौन के वृक्ष को निमंत्रण देने जाते हैं। आज के दिन भी एक बकरे की बलि दी जाती है।
द्वितीय दिवस : -
• दूसरे दिन याने मंगलवार को सभी लोग उस सागौन की लकड़ी को काटने जाते हैं। लकड़ी काटते समय यह आवश्यक है कि लकड़ी नीचे नहीं गिरे । क्योंकि इसी लकड़ी का मुंडा बनाया जाता है।
• इसी दिन श्मशान घाट में एक बाँस रखा जाता है। इस बाँस से अगले दिन ढबली बनाई जाती है। इस ढबली में सात केंकड़े और सात चूजे रखे जाते हैं और दोंगले की जड़ रखी जाती है। दोंगले की जड़ को मृतक की हड्डी माना जाता है।
•उस लकड़ी को नाचते गाते हुए घर ले आते हैं। जिसमें रात भर कोई व्यक्ति आकृतियाँ उकेरता है । इन आकृतियों में सबसे ऊपर चाँद सूरज बनाया जाता है। फिर घोड़े पर बैठे माता - पिता बनाये जाते हैं। उसके बाद मुंगिया एवं मूंगनी एवं अन्य दिवंगत परिजन, फूल आदि उकेरे जाते हैं।
• माता - पिता के साथ अन्य परिजनों का उकेरना तो समझा जा सकता है किन्तु मूंगिया एवं मूंगनी अर्थात् ओझा दंपत्ति मुंडा पर क्यों उकेरी जाती है ?
• जवाब है कि ::- चूंकि ये मूंगिया और मूंगनी कोरकू जनजाति में चारण और भाट के रूप में मान्य है । ओझा लोग कोरकुओं के जन्म, विवाह, मृत्यु सभी अवसरों पर गायन और दान प्राप्त करने
•आते हैं। साथ ही कोरकू जनजाति में जो गुदना आकृतियाँ बनाई जाती हैं, वे ओझाओं के द्वारा ही बनाई जाती हैं। ये ओझा परिवार भी परिजन तुल्य हो जाते हैं। इस कारण मुंगिया - मूंगनी और उनका वाद्य यंत्र जिसे चिकारा कहा जाता है, को भी मुंडा पर उकेरा जाता है.
तीसरा दिन : -
• अगले दिन जिस व्यक्ति के घर में सिडोली आयोजित हो रही है, उसके घर धारणी देव के पास में सुबह - सुबह इस मुंडा की पूजा करते हैं।
• इस अवसर पर पहले से तैयार भात और बलि दिए गये बकरे के खून को ऐसा फेंका जाता है कि लोग उसे झेल सकें ।
• इस भात को झेलने के लिए लोग झपट पड़ते हैं। इस झपटे हुए भात और खून को लोग अपने घर ले जाकर एक चिन्दी में बांधकर रख देते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे बरकत और सफलता मिलती है।
• मुंडा को घर लाने पर ऐसा माना जाता है कि पितृ आत्माएँ अंतिम बार घर आ रही हैं। इस दिन सुबह - सुबह ही सिडोली आयोजक पति-पत्नी एक दूसरे को चिढ़ाते हुए गीत की शुरूआत करते हैं। इनकी आवाज बाहर बैठे परिजन भी सुनते हैं और वे भी गीत नृत्य शुरू कर देते हैं।
• आज गाये जाने वाले गीतों की विषयवस्तु उद्दाम काम आवेगों और काम अनुभव पर आधारित होती है। कोरकू जनजाति में अब इसी कारण सिडोली प्रथा को बुरा माना जाने लगा है।
• रोचक बात है कि इन कामपरक गीतों में ज्यादातर बातें नदी, मछली, पेड़, खेती, किसानी आदि के प्रतीकों के माध्यम से की जाती है।
• आज के दिन उम्र और अनुशासन का बंधन टूट सा जाता है। स्त्री-पुरुष दोनों काम अभिव्यक्ति के गीतों में पीछे नहीं रहना चाहते। इस संबंध में लोगों की मान्यता है कि इतनी सघन और उत्तेजक कामभाव की बातों के बावजूद उन लोगों में उत्तेजना नहीं उत्पन्न होती। इसके बाद लोग नाचते हुए आखाली देव स्थान तक जाते हैं। यहाँ पुनः एक बकरे की बलि दी जाती है।
• यहाँ बलि किए जाने वाले बकरों को कुल्हाड़ी या फरसे या बसूले से एक झटके से काटा जाता है। यहाँ छूरी का इस्तेमाल वर्जित होता है ।
• इसके बाद सिडोली आयोजित करने वाला व्यक्ति सभी लोगों को विदा करता है। इसमें हर बाँसुरी बजाने वाले को एक पाई और ढोल बजाने वाले को दो पाई अनाज दिया जाता है।
चौथा दिन : -
• अब अगले दिन पड़िहार या भुमका मृतक की आत्मा से यह पता करते हैं कि उसको कहाँ स्थापित
करें ? विश्वास के अनुसार आत्मा आमतौर पर वह स्थान बताती है, जहाँ पर उसके पूर्वजों के भी मुंडे गाड़े गये हों। ऐसा भी माना जाता है कि वह स्थान उसके कुल देवता का स्थान होता है।
• बहरहाल बुधवार के दिन सभी परिजन उस बताये गये स्थान पर जाकर उस मृतक स्तंभ को जमीन में पूजा करके स्थापित कर देते हैं।
• ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसके बाद आत्मा यहाँ पर स्थाई रूप से रहने लगती और रोचक बात यह है कि सिडोली यदि मृतक के पुत्र ने आयोजित की है तो सागौन की लकड़ी का मुंडा स्थापित किया जाता है और यदि किसी का पुत्र नहीं है और पुत्री ने सिडोली आयोजित की है, तो मुंडा पत्थर का गाड़ा जाता है।
• इसका कारण इस विश्वास में निहित है कि माता पिता से पुत्री का प्रेम पत्थर की तरह अटूट और दृढ़ होता है।
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