टोटेम प्रथा या टोटेमवाद What is Totem
किसी भी समाज/समुदाय कें इतिहास को समझने कें लिए उनकी प्रथा,संस्कृति को समझना जरूरी होता है।। भारत के आदिवासी समाज मे ‘टोटेम’ यानी गोत्र प्रथा का अपना अलग महत्व है। आदिवासी कबीला समाज की पहचान उसके टोटेम (गोत्र प्रथा) से होता है।
यह टोटेम प्रकृति कें जीवो और वृक्षों कें नामों से जुड़ा हुआ है। हरेक आदिवासी कबीला मे प्रकृति के उन सभी जीवांे एवं वनस्पति कें नाम को वे लोग टोटेम कें रूप मे कही ना कही उनके पूर्वजो के कारण जीवित रखा। इसी कारण आदिवासियों को प्रकृति के संरक्षक कें रूप मे जाना जाता है।
टोटेम (गोत्रप्रथा) आदिवासी कबीलाई समुदाय के पूर्वजो द्वारा हजारो वर्ष पूर्व से चली आ रही वह प्रथा है जिससे उस कबीला के ‘गण’ या ‘कुल’ की पहचान का पता चलता था।
मूलतः ‘टोटम प्रथा’ विश्व के सभी देशों के मूल आदिवासियों मे पाई जाती है। ‘टोटम प्रथा’ भारत के संथाल आदिवासी के ‘परिस’, मुंडा आदिवासी के ‘किली’ और ओजिब्वे मूल अमरीकी आदिवासी कबीला के ‘ओतोतमन’ शब्द से जुड़ा है, इसका अर्थ भाई बहन या रिश्तेदार होता है
आदिवासी कबीलाई समुदाय मे ‘टोटम प्रथा’ का संबंध पृथ्वी के सभी जीव प्राणी और पेड़ पौधो से जुड़ा हुआ है। यही कारण है की कबीलाई समुदाय को ‘प्रकृति का संरक्षक’ कहा गया है।
इस तरह की टोटम प्रथा किसी भी गैर आदिवासी समाज मे नही पाया जाता। वैसे, भारत मे हिन्दुआंे के विभिन्न सम्प्रदायो द्वारा गाय, बैल , सर्प , मोर , हाथी , शेर , चूहा पशु पक्षी आदि को उनके देवताओं के वाहक के रूप मे पूजते है
लेकिन उसे उनको ‘टोटम’ कहना गलत होगा। ऐसा इस लिये गलत होगा, क्योकि इनमें न तो टोटेम पर गण का नाम ही रखा जाता है और न गण के सदस्य टोटम को पितृ ही मानते हैं।
टोटम प्रथा मे उन विशेष पशु पक्षी पेड़ पौधे आदि को नुकसान पहुचाना या हानि पहुचाने पर प्रतिबंध होता है या उन जीवों को किसी खास दिन पर विशेष विधि द्वारा उसे समर्पित कर उसकी बलि दी जाती है। कबीलाई समुदाय मे अलग अलग कबीलों का अपना अलग अलग टोटम होता है जिसे खास गण चिन्ह के रूप मे चिन्हित किया जाता है।
मूल अमरीकी आदिवासी कबीला के लोग अपना गणचिन्ह लकड़ी के खम्बों मे चिन्हित करते है।
सामान्य शब्दों मे कहें तो Totem गणचिह्ववाद या टोटम प्रथा (totemism) किसी समाज के उस विश्वास को कहतें हैं जिसमें मनुष्यों का किसी जानवर, वृक्ष, पौधे या अन्य आत्मा से सम्बन्ध माना जाए। ‘
टोटम वाले जानवर या वृक्ष का उसे मानने वाले कबीले के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है और उसे मारना या हानि पहुँचाना वर्जित होता है, या फिर उसे किसी विशेष अवसर पर या विशेष विधि से ही मारा जा सकता है।
पशु-पक्षी, वृक्ष-पौधों पर व्यक्ति, गण, जाति या जनजाति का नामकरण अत्यंत प्रचलित सामाजिक प्रथा है जो सभ्य और असभ्य दोनों प्रकार के समाजों में पाई जाती है।
उत्तरी अमरीका के पचिमी तट पर रहने वाली हैडा, टिलिगिट, क्वाकीटुल आदि जनजातियों में विशाल खंभे पाए जाते हैं, जिन्हें इन जातियों के लोग देवता मानते हैं। इनके लिए इन जातियों में टोडेम, ओडोडेम आदि शब्दों का प्रयोग होता है, जिसकी ध्वनि टोटेम हैं।
मध्य आस्ट्रेलिया के अरुंटा आदिवासी, अफ्रीका के पूर्वी मध्य प्रदेाों तथा भारत की जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित हैं।
गणचिह्ववाद (टोटेमिज्म) के लक्षण सब कहीं एक से नहीं पाये जाते। उदाहरणत: हैडा तथा टिलिंगिट जातियों में गणचिह्ववाद सामाजिक प्रथा हैं, परंतु उसका धार्मिक स्वरूप विकसित नहीं है। मध्य आस्ट्रेलिया की अरुन्टा जाति में टोटेम-धर्म और रीतियाँ पूर्ण विकसित हैं।
भारत की मुंडा, उराँव, संथाल आदि जातियों में टोटेम केवल गणनाम और गणचिह्व के रूप में प्रयुक्त होता हैं। वहाँ टोटेम-बलि और टोटेम-पूजा की परंपराएँ नहीं पाई जातीं।
आदिवासी कला पर गण का प्रभाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। छोटानागपुर तथा मध्य प्रदेश में घरों की दीवारों पर टोटेम के चित्र देखने में आते हैं। न्यूजीलैंड के माओरी, अपनी नौकाओं पर अपने टोटेम का चित्र उकेर देते हैं। अन्य जनजातियों में पहनने के वस्त्र, उपकरण और झंडे सब पर टोटेम चित्रित रहता है।
टोटेमगण के सदस्य अपने को टोटेम की अलौकिक और मानसिक संतान मानते हैं। वे अपने गण में विवाह नहीं करते। इस प्रकार टोटेमवादी समाजों में बहिर्विवाह की रीति मान्य होती है।
भारत में अनेक टोटेमी जातियाँ हैं। उराँव (कुँड़ुख), संथाल, गोंड, भील, मुंडा, हो इत्यादि जाति में सौ से अधिक ऐसे गण है जिनके नाम पशु -पक्षी और वृक्ष पर रखे जाते हैं।
महाराट्र में ताम्बे नाम रखने वाले लोग नाग को अपना कुल देवता मानते हैं और कभी भी नाग नहीं मारते। 19वीं सदी में सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले भील लोगों में देखा गया कि - हर गुट का एक टोटम, जानवर या वृक्ष था। जैसे कि पतंगे, सांप, मोर, बांस, पीपल आदि।
मोरी नामक भील गुट का टोटम मोर था। इसके सदस्यों को मोर के पद-चिह्वों पर पैर डालना मना था। अगर कहीं मोर दिख जाए तो मोरी स्त्रियाँ उस से पर्दा कर लेती थीं या फिर दूसरी तरफ मुंह कर लेती थीं।
सभी जातियों में, टोटेमी गण नाम के साथ-साथ टोटेमवाद के कई लक्षण भी है। जैसे टोटेम को अलौकिक पितृ दृाक्ति मानना, टोटेम के चित्र तथा संकेतों को भी पवित्र मानकर उनको पूजा जाता है और टोटेम को नष्ट करने पर कठोर प्रतिबंध होता है।
जब कबीलों से निकलकर गांवों की निर्माण किया गया तब अलग-अलग (गोत्रों, टोटेम) पर ही की गई। इनके द्वारा बनाए गए किली, गोत्र, टोटेम आधारित गाँव व्यवस्था को ही परम्पारिक ग्राम सभा बोला जाता है।
प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करने की दृाक्ति भी गांव में टोटेम के वंशावली को ही है और गाँव परिवार के लिए नियम कानून बनाना, उसे प्रचार-प्रसार करना और लागू करना भी उन्हीं के द्वारा होना है।
झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में निवास करने वाली कुँड़ुख़ (उराँव) जनजाति के बीच टोटेम या गणचिह्व व्यवस्था काफी प्रचलित है। लोग, अपने टोटेम या गणचिह्व का सम्मान करते हैं। अपनी भाषा में इसे लोग गोत्र या गोतर कहते हैं।
- लकड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बाघ है, उसी तरह बड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बरगद का पेड़ है।
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