छतीसगढ़ के लोकनृत्य
1. भाटा-खाई नृत्य : -
•बस्तर मे यह नृत्य की रस्म भतरा जनजाति मे प्रचलित है |
•विवाह मंडप मे तेल हल्दी रस्म के समय यह भाटाखाई रस्म की जाती है।
• इस अवसर पर दुल्हे और दुल्हन को पीछे कमर के उपर चढ़ाकर मंडप मे यह नृत्य किया जाता है |
•यह रस्म दोरला जनजाति मे भी प्रचलित है, उसकी विशेषता यह है कि दुल्हे और दुल्हन को कमर के उपर चढ़ाकर नृत्य करने वाली महिलाएं होती है।
2. धुरवा नृत्य : -
•यह नृत्य बस्तर मे धुर्वा जनजाति के द्वारा किया जाता है |
•इस नृत्य के समय परेड जैसा दृष्य दिखाई देता है।
•यह नृत्य बिना किसी गीत के समपन्न होता है।
•इस नृत्य मे 15-20 नर्तक समूह होते है, जो पिरामिडनुमा आकृति बनाकर नृत्य करते है।
•महिला नर्तकिया इस पिरामिड के नीचे नाचते हुए अन्दर बाहर होती है।
•इस नृत्य को सैनिक नृत्य भी कहा जाता है ।
•इसमें नर्तक नृत्य के दौरान वीरता के प्रतीक चिन्ह कुल्हाड़ी और तलवार लिए हुए होते है |
•इस नृत्य का आयोजन मड़ई या सामाजिक धार्मिक उत्सवो मे होता है |
3. पेन कोलांग नृत्य / देव कोलांग नृत्य : -
•पेन का अर्थ देवता और कोलांग का अर्थ लकड़ी का डंडा है |
•यह नृत्य भी मुड़िया जनजाति के युवको द्वारा किया जाता है, किन्तु युवतिया इनके साथ भोजन पकाने और उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ रहती है |
•इस नृत्य को पड़ोसी गांव मे प्रदर्शित किया जाता है और वहां सें वापस लौटकर अपने गाँव के प्रमुख के घर के सामने इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है।
•इस नृत्य मे मृत्यु कि सार्वभौमिकता से संबंधित गीत गाये जाते है।
•इस नृत्य कि शैली पूस कोलांग नृत्य से मिलती-जुलती है।
•इस नृत्य का कोई विशेष समय नहीं है।
4. पूस कोलांग नृत्य / नेई कोलांग नृत्य / कुकुर कोलंग नृत्य / कोलांग पाटा : -
•पूस का अर्थ पूष माह से है, जबकि कोलांग का अर्थ लकड़ी का डंडा है |
•इस नृत्य का आयोजन पूष माह मे किया जाता है | इस नृत्य मे नर्तक लकड़ी के डंडे पकड़कर नृत्य करते है जिस कारण इस नृत्य को पूस कोलांग नृत्य कहते है |
•यह नृत्य मुख्य रूप सें मुड़िया जनजाति के लोग करते है | इस नृत्य मे केवल घोटुल के चेलिक (पुरुष) भाग लेते है, मोटीयारिन/मोतियारिन (महिला) इसमें भाग नहीं लेती |
•मुड़िया जनजाति मे मान्यता है कि इस परम्परा का जन्म लिंगोदेव सें हुआ है |
•यह नृत्य अलग-अलग गाँव मे जाकर किया जाता है |
•जब लिंगोदेव ने इस नृत्य को प्रारंभ किया था तो वह अपने साथ गाँव कि यात्रा मे चीता लेकर गए थे, इसी स्मृति मे आज गाँव के युवक अपने साथ कुत्ते को लेकर जाते है, जिस कारण इस नृत्य को कुकुर कोलांग भी कहा जाता है।
•जब यह नृत्य होता है तो मध्य भाग मे कुत्ते का बैठा रहना आवश्यक होता है और यदि कुत्ता शांत बैठा रहता है तो यह शुभ माना जाता है।
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