मंदिर निर्माण की द्रविड़ शैली
⇒कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं। द्रविड़ शैली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में हुई और सुदूर दक्षिण भारत में इसकी दीर्घजीविता 18वीं शताब्दी तक बनी रही।
• पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने उँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह हासमान हुई।
• चोल काल में द्रविड़ शैली की वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का संगम हो गया।
• द्रविड़ मंदिर एक परिसर की दीवार से घिरा हुआ होता है।
• मंदिर में एक विशाल प्रवेश द्वार होता है, जिसे गोपुरम के नाम से जाना जाता है।
• दक्षिण भारतीय मंदिरों में 'शिखर' शब्द का प्रयोग केवल मंदिर के शीर्ष पर मुकुट तत्व के लिए किया जाता है।
• शिखर का आकार आमतौर पर एक छोटे स्तूपिका या अष्टकोणीय गुंबद जैसा होता है - यह उत्तर भारतीय मंदिरों के आमलक और कलश के बराबर है।
• वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मंदिर संरचना इस शैली की विशेषता है।
इस शैली के मंदिरों के परिसर के भीतर एक बड़ा जलाशय या मंदिर का टैंक पाया जाना आम बात है।
• एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर पूर्ण द्रविड़ शैलीम में निर्मित मंदिर र का एक प्रसिद्ध उदाहरण है।
• मंदिर की रक्षा करने वाले द्वारपाल गर्भगृह के प्रवेश द्वार को सुशोभित करते हैं।
• द्रविड़ शैली के अंतर्गत ही आगे नायक शैली का विकास हुआ।
•तंजावुर का भव्य शिव मंदिर, बृहदेश्वर मंदिर, कांचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर, मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), रंगनाथ मंदिर (श्रीरंगम, तमिलनाडु) आदि इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं।
⇒ चोल काल के दौरान मंदिरों के निर्माण के लिए पत्थर का उपयोग प्रमुख सामग्री के रूप में किया जाने लगा।
• चोल काल में मंदिरों का आकार अत्यधिक बड़ा हो जाने से गोपुरम अधिक प्रमुख हो गए। उन्हें विभिन्न पुराणों का प्रतिनिधित्व करने वाली नक्काशी से सजाया गया था।
• चोल काल के दौरान विमानों को अधिक भव्यता प्राप्त हुई।
• मंदिर के निर्माण में मूर्तियों के प्रयोग पर अधिक जोर दिया गया।
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